Thursday, April 23, 2015

जीने की आदत मुझे कहा ले आई है। 
यहाँ कोई नही, दूर तक तन्हाई है। 
सिक्को की खनक में उलझा हूँ बेइंतेहा। 
संग रूह है ना परछाई है। 

हर तरफ शोर है फिर भी है सन्नाटे। 
वक़्त की गिरह में फूल काम ज़्यादा है कांटे। 
साँसों की डोर कमज़ोर सी लगती है। 
जबसे हमने अपनों से निगाह चुराई है। 
सिक्को की खनक में उलझा हूँ बेइंतेहा। 
संग रूह है ना परछाई है।

मैं निकला था सुकून की तलाश में, 
सुकून ना है यहाँ हर आँख मुरझाई है 
 तनहा है हर शख्श यहाँ अपनी ही खोज में। 
पलकों पे हर एक की यादो की नरमाई है। 
सिक्को की खनक में उलझा हूँ बेइंतेहा। 
संग रूह है ना परछाई है। 

जीने की आदत मुझे कहा ले आई है। 
यहाँ कोई नही, दूर तक तन्हाई है। 
सिक्को की खनक में उलझा हूँ बेइंतेहा। 
संग रूह है ना परछाई है। 

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